Saturday, October 10, 2009

तन को बेचैन भटकना था, मन में कस्तूरी रहनी थी

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
मेरठ शहर का घनी आबादी वाला मुहल्ला है ब्रह्मपुरी । दिल्ली रोड के करीब बसे इसी मुहल्ले के मुख्य मार्ग पर है परशुराम हलवाई की दुकान, जिससे सटी गली में है हिंदी काव्य मंच के समर्थ गीतकार भारत भूषण का मकान । गली में घुसने पर जो पहला व्यक्ति मिला, उससे मैंने भारत भूषण का घर पूछा, तो सामने के एक मकान की ओर उसने तर्जनी से संकेत किया। काले रंग से रंगे गेट को खोला और वहां सफाई कर रही महिला से मैंने भारत जी के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि वह आ रहे हैं ।
पीछे मुड़ा, तो हाथ में थाली लिए भारत भूषण मंदिर से लौट रहे थे । कदमों में कुछ डगमगाहट थी, जिसे वह छड़ी के सहारे संतुलित कर रहे थे । शायद ८० साल की आयु पार करने पर घुटनों में होने वाली तकलीफ का असर था । मैंने अपना परिचय दिया, तो आत्मीयता से ड्राइंगरूम में ले गए और कुरसी पर बैठने को कह खुद भी बैठ गए ।
मैंने बात शुरू की, तो बोले, 'अब कम सुनाई देता है । जरा जोर से बोलना। बातें भी भूल जाता हूं । यह कहते हुए उनके चेहरे पर पीड़ा के भाव आ गए ।
तभी उनका पौत्र हलवे की प्लेट रख गया। भारत जी बोले, 'पहले प्रसाद ग्रहण करो, फिर बात करते हैं । कुछ देर बाद बोले, अब यही मेरा कमरा है । सारा समय यहीं बीतता है । जब कवि सम्मेलनों से अच्छी आय हो रही थी, तब यह मकान बनवा लिया था ।
मैंने कहा, आपकी कविता राम की जल समाधि की मैंने बड़ी तारीफ सुनी है । उसकी कुछ पंक्तियां सुनाइए। भारत जी की आंखों में चमक आ गई । बोले, राम की जल समाधि सुनकर महादेïवी वर्मा ने कहा था कि इस कविता से राम पर लगे सारे आक्षेप धुल गए हैं । मुंबई में एक कार्यक्रम में इस कविता को सुनकर धर्मवीर भारती ने गले लगा लिया था । भारती जी ने कहा, 'भारत भूषण आपको नहीं पता कि आपने कितनी बड़ी कविता लिखी है । तब पुष्पा जी भी उनके साथ थीं । ये मेरे लिए गौरव के ऐसे पल थे, जिन्हें मैं कभी भुला नहीं सकता । स्मरण करने की मुद्रा में बोले, इस कविता की शुरुआत ऐसे होती है- पश्चिम से ढलका सूर्य/ उठा वंशज सरयू की रेती से/ हारा-हारा रीता-रीता/ निशब्द धरा, निशब्द व्योम, निशब्द अधर/ पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता ।
भारत भूषण जी के गीतों में जहां प्रेम की व्याकुलता है, वहीं मिलन न होने से उपजी मायूसी का भाव भी । उनकी तसवीर अधूरी रहनी थी कविता भी काफी चर्चित हुई, शायद मैंने गत जनमों में अधबने नीड़ तोड़े होंगे/ चातक का स्वर सुनने वाले बादल वापस मोड़े होंगे/ ऐसा अपराध हुआ होगा फिर जिसकी क्षमा नहीं मिलती/ तितली के पर नोचे होंगे, हिरनी के दृग फोड़े होंगे/ अनगिनत कुछ कर्ज चुकाने थे इसलिए जिंदगी भर मेरे/ तन को बेचैन भटकना था, मन में कस्तूरी रहनी थी ।
आठ जुलाई १९२९ को जन्मे भारत भूषण का पूरा जीवन मेरठ में बीता। बीएबी इंटर कॉलेज, मेरठ में वह लंबे समय तक अध्यापक रहे और एक लोकप्रिय कवि के रूप में उन्होंने पूरे देश में अपनी पहचान बनाई । भारत जी सूक्ष्म संवेदनाओं को विराट अभिव्यक्ति देने वाले सामथ्र्यवान गीतकार हैं । उनके अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- सागर की सीप, ये असंगति, मेरे चुनींदा गीत ।
(अमर उजाला हिंदी दैनिक के दो अक्टूबर २००९ के अंक में आखर पेज पर प्रकाशित)

2 comments:

Aman Tripathi said...

"राम की जल समाधि" फिर याद आ गयी! धन्यवाद!

निर्मल गुप्त said...

भारत भूषण जी को सुनना हमेशा एक विशिष्ट अनुभव रहा है .लेकिन उनकी कुछ व्यवहारगत समस्याओं के चलते वह कभी स्थानीय प्रतिभाओं के लिए प्ररणा नहीं बन सके .फिर भी इससे उनकी महानता अक्षुण है और रहेगी -निर्मलगुप्त