Saturday, November 28, 2009

जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराती गजलें

-अशोक प्रियरंजन
उर्दू के साथ ही हिंदी में भी खास पहचान बनाने वाले शायर राम अवतार गुप्ता 'मुज्तरÓ की गजलें जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराती हैं । 'सीपियों में समंदरÓ उनकी हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं की गजलों का संग्रह है जिसमें उन्होंने जहां सियासत और मौजूदा समाज में पनप रही विसंगतियों को रेखांकित किया है वहीं इश्क, मोहब्बत से जुड़ी कोमल भावनाओं को खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है । मौजूदा दौर की कड़वी हकीकत को वह कुछ इस तरह बयां करते हैं-'आड़ में अम्नो-अमां की हादसे बोए गए, रोशनी के वास्ते शोलों को भड़काया गया।Ó प्रेम भावना की बुलंदी को भी बड़ी गहराई से महसूस करके शब्दबद्ध करते है-'बोसा इक तूने हथेली पै मेरी क्या रक्खा, मैं जिधर हाथ उठाऊं तेरी खुशबू निकले।Ó वह संघर्ष करना जिंदगी की नियति मानते हंै-'जीवन की राहों में इन्सां गम से भागे भाग न पाए, शीश महल का पंछी जैसे टकरा-टकरा कर मर जाए।Ó मुज्तर की साफगोई, पुख्ता शायरी, बयान करने का अंदाज, हिंदी और उर्दू दोनों में प्रखर भाषिक संवेदना उन्हें उम्दा शायर के रूप में स्थापित करती है। उनकी सोच का फलक बहुत व्यापक है । जिंदगी और इससे जुड़ी विविध संवेदनाओं को उन्होंने बहुआयामी दृष्टिकोण से गजलों में उतारा है । इस नाते हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में राम अवतार गुप्ता और उनके इस गजल संग्रह का अहम मुकाम है।
सीपियों में समंदर, राम अवतार गुप्ता 'मुज्तरÓ, प्रकाशक : बेनजीर प्रिंटर्स, नजीबाबाद, मूल्य : १५० रुपये।

(अमर उजाला, मेरठ के २७ नवंबर २००९ केअंक में भी प्रकाशित)

Saturday, November 21, 2009

कौरवी लोक साहित्य का विश्लेषण

- अशोक प्रियरंजन
हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय रूप में खड़ी बोली ने पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाई है । खड़ी बोली का आधार है मेरठ, सहारनपुर, बुलंदशहर और दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली कौरवी । खड़ी बोली का तो तेजी से विकास हुआ लेकिन विविध कारणों से कौरवी सिर्फ बोलने तक सीमित होकर रह गई । कौरवी में राग-रागनियां, आल्हा, लोकगाथाएं, स्वांग, कहानियां, होली, भजन, धार्मिक और सामाजिक गीत लिखे गए लेकिन अधिकांश वाचिक परंपरा तक ही सीमित होकर रह गए । प्रकाशित सामग्री का अभाव इस बोली के विकास में बड़ी बाधा बना रहा । इस पुस्तक में कौरवी के क्षेत्र, भाषागत रूप और साहित्य की सम्यक विवेचना तो की ही गई है साथ ही विभिन्न विधाओं की प्रमुख रचनाओं को भी प्रस्तुत किया गया है । ग्यारह अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में कौरवी बोली के विविध पक्षों का शोधपरक अनुशीलन किया गया है । कौरवी के क्षेत्र, प्रमुख रचनाकार, लोक साहित्य के रूप यथा लावनी, नौटंकी, झूलना, ख्याल आदि का सोदाहरण विश्लेषण किया गया है । कौरवी लोककथाओं पर भी प्रकाश डाला गया है । मेरठ परिक्षेत्र के जनकवियों के काव्य में सामाजिक, राजनीतिक जागृति के स्वरों को भी रेखांकित किया गया है । परिशिष्ट में प्रस्तुत सामग्री की अपनी अलग उपादेयता है । वस्तुत: डॉ. नवीन चंद्र लोहनी की यह किताब इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इसमें कौरवी भाषा और साहित्य के व्यापक सरोकारों को रेखांकित करते हुए उसके विविध पक्षों का शोधपरक गहन विश्लेषण, तार्किक विवेचन किया गया है और सामायिक संदर्भों में उसकी महत्ता को चिह्नित किया गया है ।
कौरवी लोक साहित्य, लेखक: डॉ. नवीन चंद्र लोहनी, सहयोगी-डॉ. रवींद्र कुमार, सीमा शर्मा, प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : २५० रुपये ।

(अमर उजाला, मेरठ के २० नवंबर के अंक में प्रकाशित)

Saturday, November 14, 2009

सूक्ष्म संवेदनाओं की अभिव्यक्ति

-अशोक प्रियरंजन
इस संग्रह की कविताओं में तीन कवियों ने आधुनिक जीवन की सूक्ष्म संवेदनाओं को अभिव्यक्ति दी है। निर्मल गुप्त की कविताएं कथ्य की सरलता, सहज शिल्प, बिम्ब, प्रतीक, नए मुहावरों के कारण ध्यान खींचती हैं । बड़ी कलात्मकता से उन्होंने मनुष्य और समाज में पनप रहे तनाव और जिंदगी के संघर्ष को रेखांकित किया है । 'नहाती हुई लड़की शीर्षक कविता में वह लिखते हैं- लड़की नहाती है/तो उसके पोर-पोर में समा जाते हैं असंख्य जल-बिंदु/ तब वह स्वत: ही मुक्त हो जाती है गुरुत्वाकर्षण से/ और चल देती है/ हजारों प्रकाश-वर्ष की अनंत यात्रा पर।Ó दूसरे कवि राजन स्वामी की कविताएं आम जिंदगी पर पनप रहे तनाव और सामाजिक मूल्यों के पतन की ओर संकेत करती है । नन्हीं बिटिया की डायरी से में वे लिखते हैं-'हे भगवान, अफसर की गलती हो या पापा की कुंठा, मार मैं ही खाती हूं, कभी कभी लगता है कि दफ्तर पापा नहीं, मैं जाती हूं ।Ó तीसरे कवि दीपक कुमार श्रीवास्तव मनुष्य के अंतद्र्वंद, सामाजिक विडंबनाओं, अकेलेपन और परिस्थितियों से उपजे तनाव को रेखांकित करते हैं । द्वंद्व में वह लिखते हैं-'दोहरी होती गई हर चीज, दोहरी होती जिंदगी के साथ। आस्थाएं, विश्वास, कर्तव्य, आत्मा और फिर उसकी आवाज।Ó सभी तीन कवियों की कविताएं कथ्य की नवीनता के कारण काफी आश्वस्त करती हैं ।
तीन, निर्मल गुप्त, राजन स्वामी, दीपक कुमार श्रीवास्तव : स्वर्ण-रामेश्वर पब्लिकेशन्स मेरठ, मूल्य : ५० रुपये।
(अमर उजाला, मेरठ के १३ नवंबर के अंक में प्रकाशित)

Saturday, November 7, 2009

आम आदमी की पीड़ा

-अशोक प्रियरंजन
जिंदगी के विविध रंगों से रूबरू कराती इन गजलों में मौजूदा दौर केआम आदमी की पीड़ा मुखर है । बदलते दौर में पनप रही समस्याओं, संवेदनहीनता, विसंगितयों, निराशा, अस्तित्व संकट और इंसानियत के संकट को गजलों में रेखांकित किया गया है । 'अजीब सा मौसमÓ में शामिल गजलों में राजन स्वामी ने हिंदी-उर्दू शब्दों का प्रभावशाली प्रयोग करते हुए सूक्ष्म संवेदनाओं को बड़े मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है । 'बच्चों के अरमानों का कद मेरी हद को लांघ गया, अब मेरा अपने ही घर में आना-जाना मुश्किल हैÓ जैसे शेर नई पीढ़ी की महत्वाकांक्षाओं को रेखांकित करते हैं । 'हरेक शख्स ने कुदरत को इस कदर लूटा, कभी अमीर था, अब है गरीब सा मौसमÓ शेर में पेड़ों केअंधाधुंध कटान की ज्वलंत समस्या पर अंगुली रखी गई है । मानवीय जीवन की विवशताओं, कुर्सी की राजनीति, आदमी के भटकाव, हताशा, महानगर की समस्याओं को भी बड़ी गंभीरता के साथ अभिव्यक्त किया गया है । गजलों के शेर दिल पर दस्तक देते महसूस होते हैं । वस्तुत: राजन स्वामी का ये गजल संग्रह पाठकों के सामने कई सवाल खड़े करते हुए वैचारिक मंथन के लिए विवश कर देता है। कथ्य, शिल्प और भाषा केस्तर पर गजलें मन को सुकून देती हैं और कई संभावनाओं को जागृत करती हैं ।

अजीब सा मौसम, राजन स्वामी : स्वर्ण रामेश्वर पब्लिकेशन्स, मेरठ, मूल्य : ७७ रुपये ।

(अमर उजाला, मेरठ के ३० अक्तूबर २००९ के अंक में प्रकाशित)