-डॉ. अशोक प्रियरंजन
मंत्र शक्ति की महत्ता को संपूर्ण आध्यात्मिक जगत ने स्वीकार किया है। मंत्रों केमाध्यम से न केवल ईश कृपा प्राप्त की जा सकती है वरन जीवन में आध्यात्मिक शक्ति अर्जित की जा सकती है। कनाडा मेंं बसी भारतीय मूल की स्नेह ठाकुर ने उपनिषद दर्शन में मंत्रों की सहज, सुगम और सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने मंत्रों की अर्थवत्ता को स्पष्ट करते हुए जीवन में उनकी महत्ता को रेखांकित किया है। गायत्री मंत्र और अन्य १८ मंत्रों में प्रयुक्त संस्कृत के कठिन शब्दों के हिंदी में अर्थ तथा उनकी आध्यात्मिक विवेचना भी प्रस्तुत की गई है।
उपनिषद दर्शन, लेखिका : स्नेह ठाकुर, प्रकाशन :स्टार पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, मूल्य : २५० रुपये।
Saturday, March 13, 2010
Friday, February 19, 2010
जटिल रोगों की सहज जानकारी
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
कनाडा में बसी भारतीय मूल की साहित्यकार स्नेह ठाकुर ने संजीवनी केमाध्यम से लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने का सार्थक प्रयास किया है। इस पुस्तक में उन्होंने विविध रोगों के इलाज और स्वास्थ्य संबंधी परिस्थितियों की जानकारी दी है। पुस्तक में मधुमेह, तनाव, स्त्रियों में हृदयरोग, एस्ट्रोजन थेरेपी, कैंसर, आस्टियोपोरोस्सि, पार्किन्सन, सफेद बाल, नारी मोटापा, तोतलापन, एलर्जी, एल्जाईमर, मानसिक रोग, बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू आदि रोगों के विषय में ३३ आलेख संकलित हैं। इनमें विविध रोगों के विषय में लक्षण, उपचार, बचाव, जटिलताएं, पृष्ठभूमि, विविध शोध संबंधी जानकारियां, चिकित्सकों की राय और पीडि़तों केउद्धरण दिए गए हैं। सहज, सरल और रोचक भाषा में गंभीर और चिकित्सा संबंधी विषयों की प्रस्तुति पुस्तक को पठनीय और उपयोगी बना देती है। इस पुस्तक की सार्थकता इसी बात में निहित है कि एक आम आदमी भी इस पुस्तक के माध्यम से जटिल रोगों केविषय में सूक्ष्म जानकारियां हासिल कर सकता है। पुस्तक सचेत करने केसाथ ही उन अवस्थाओं और स्थितियों पर भी प्रकाश डालती है जिनके चलते कोई व्यक्ति किसी बीमारी का शिकार हो जाता है। साहित्यकार की लेखनी से लिखी इस चिकित्सा संबंधी पुस्तक की इन तमाम कारणों से अपनी अलग उपयोगिता है।
संजीवनी, लेखिका : स्नेह ठाकुर, प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, मूल्य : २५० रुपये।
कनाडा में बसी भारतीय मूल की साहित्यकार स्नेह ठाकुर ने संजीवनी केमाध्यम से लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने का सार्थक प्रयास किया है। इस पुस्तक में उन्होंने विविध रोगों के इलाज और स्वास्थ्य संबंधी परिस्थितियों की जानकारी दी है। पुस्तक में मधुमेह, तनाव, स्त्रियों में हृदयरोग, एस्ट्रोजन थेरेपी, कैंसर, आस्टियोपोरोस्सि, पार्किन्सन, सफेद बाल, नारी मोटापा, तोतलापन, एलर्जी, एल्जाईमर, मानसिक रोग, बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू आदि रोगों के विषय में ३३ आलेख संकलित हैं। इनमें विविध रोगों के विषय में लक्षण, उपचार, बचाव, जटिलताएं, पृष्ठभूमि, विविध शोध संबंधी जानकारियां, चिकित्सकों की राय और पीडि़तों केउद्धरण दिए गए हैं। सहज, सरल और रोचक भाषा में गंभीर और चिकित्सा संबंधी विषयों की प्रस्तुति पुस्तक को पठनीय और उपयोगी बना देती है। इस पुस्तक की सार्थकता इसी बात में निहित है कि एक आम आदमी भी इस पुस्तक के माध्यम से जटिल रोगों केविषय में सूक्ष्म जानकारियां हासिल कर सकता है। पुस्तक सचेत करने केसाथ ही उन अवस्थाओं और स्थितियों पर भी प्रकाश डालती है जिनके चलते कोई व्यक्ति किसी बीमारी का शिकार हो जाता है। साहित्यकार की लेखनी से लिखी इस चिकित्सा संबंधी पुस्तक की इन तमाम कारणों से अपनी अलग उपयोगिता है।
संजीवनी, लेखिका : स्नेह ठाकुर, प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, मूल्य : २५० रुपये।
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Monday, February 8, 2010
जिंदगी कीसच्चाई को उजागर करती गजलें
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल का यह दूसरा गजल संग्रह हथेली पर सूरज मौजूदा दौर के आम आदमी के अंतर्मन की व्यथा, सामाजिक विसंगतियों, जिंदगी की तल्ख हकीकत, राजनीतिक विद्रूपताओं और नित बदल रहे जीवनमूल्यों से रू-ब-रू कराता है। हुस्न और मुहब्बत जैसे कोमल भावों को भी अभिव्यक्त करने का उनका अंदाज अलग है-'छुप के बादली में मुझे चांद चिढ़ाता क्या है, मैं अपने चांद को चिलमन में छोड़ आया हूं।Ó रिश्तों में आए बदलाव हों या आदमी की सोच में या फिर सामाजिक मान्यताओं में, वह बड़ी संजीदगी के साथ सभी को रेखांकित करते हैं और कुछ कड़वी हकीकत से भी रु-ब-रू कराते हैं। यथा-'तहजीब तो पश्चिम की हवाओं में बह गई, रिश्ते बदल रहे हैं जमाने के साथ-साथ। राजनेताओं के चरित्र और राजनीति में उपज रही विसंगतियों को भी वह प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त करते हैं-'इन अंधेरों की सियासत से कहां डरते हैं, हम तो सूरज को हथेली पे लिए फिरते हैं। जो जमाने की मुहब्बत में हुए हैं कुरबान, ऐसे इन्सान जमाने में कहां मरते हैं। प्रभावशाली कथ्य, बेहतरीन शिल्प और गहन भाषिक संवेदना के चलते इस संग्रह का हर शेर पाठक के दिल पर अपनी छाप छोडऩे में कामयाब है। यह गजल संग्रह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भाषा की गंगा जमुनी संस्कृति को पुष्ट करता है। इसमें गजलों को आमने-सामने केपृष्ठों पर हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रस्तुत किया गया है। इसलिए दोनों भाषाओं के पाठकों के लिए यह उपयोगी है।
हथेली पर सूरज, शायर : डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल प्रकाशक : निरुपमा प्रकाशन, मेरठ, मूल्य : १५० रुपये।
डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल का यह दूसरा गजल संग्रह हथेली पर सूरज मौजूदा दौर के आम आदमी के अंतर्मन की व्यथा, सामाजिक विसंगतियों, जिंदगी की तल्ख हकीकत, राजनीतिक विद्रूपताओं और नित बदल रहे जीवनमूल्यों से रू-ब-रू कराता है। हुस्न और मुहब्बत जैसे कोमल भावों को भी अभिव्यक्त करने का उनका अंदाज अलग है-'छुप के बादली में मुझे चांद चिढ़ाता क्या है, मैं अपने चांद को चिलमन में छोड़ आया हूं।Ó रिश्तों में आए बदलाव हों या आदमी की सोच में या फिर सामाजिक मान्यताओं में, वह बड़ी संजीदगी के साथ सभी को रेखांकित करते हैं और कुछ कड़वी हकीकत से भी रु-ब-रू कराते हैं। यथा-'तहजीब तो पश्चिम की हवाओं में बह गई, रिश्ते बदल रहे हैं जमाने के साथ-साथ। राजनेताओं के चरित्र और राजनीति में उपज रही विसंगतियों को भी वह प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त करते हैं-'इन अंधेरों की सियासत से कहां डरते हैं, हम तो सूरज को हथेली पे लिए फिरते हैं। जो जमाने की मुहब्बत में हुए हैं कुरबान, ऐसे इन्सान जमाने में कहां मरते हैं। प्रभावशाली कथ्य, बेहतरीन शिल्प और गहन भाषिक संवेदना के चलते इस संग्रह का हर शेर पाठक के दिल पर अपनी छाप छोडऩे में कामयाब है। यह गजल संग्रह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भाषा की गंगा जमुनी संस्कृति को पुष्ट करता है। इसमें गजलों को आमने-सामने केपृष्ठों पर हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रस्तुत किया गया है। इसलिए दोनों भाषाओं के पाठकों के लिए यह उपयोगी है।
हथेली पर सूरज, शायर : डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल प्रकाशक : निरुपमा प्रकाशन, मेरठ, मूल्य : १५० रुपये।
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Friday, January 22, 2010
नई पीढ़ी को आईना दिखा कर संबंधों की पड़ताल
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
आधुनिक समाज में युवक-युवतियों की मानसिकता में व्यापक परिवर्तन आ रहा है। नई और पुरानी मान्यताओं, परंपराओं, विचारधाराओं के बीच टकराव चल रहा है। पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता भारतीय समाज को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। इसी के चलते समाज में कई तरह के बदलाव आ रहे हैं। कोई पुरानी मान्यताओं पर टिका है तो कोई नवीनता को स्वीकार कर रहा है। काला चांद उपन्यास में डॉ. सुधाकर आशावादी ने स्त्री-पुरुष संबंधों को आधार बनाकर इसी वैचारिक परिवर्तन की पड़ताल करते हुए समाज को आईना दिखाया है। उपन्यास के केंद्र में दो नायिकाएं हैं-स्नेहा और सलोनी। दोनों का ही विवाह तय हो जाता है। स्नेहा का विवाह मयंक और सलोनी का प्रशांत से तय होता है। स्नेहा विवाह से पूर्व मयंक को देह समर्पित कर देती जबकि सलोनी ऐसा करने से इनकार कर देती है। इस संबंध के चलते स्नेहा गर्भवती हो जाती है और उसे गर्भपात कराना पड़ता है। बाद में दोनों के मंगेतर विवाह करने से इनकार कर देते हैं। इस पर शर्मिंदगी के कारण स्नेहा का जीवन से मोहभंग हो जाता है जबकि सलोनी अपनी चारित्रिक दृढ़ता से उत्पन्न आत्मविश्वास के कारण जीवन संघर्ष में अग्रसर रहती है। स्नेहा का मंगेतर जब सलोनी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है तो वह उसे सच्चाई का आईना दिखाकर उसे उसके चारित्रिक पतन का अहसास करा देती है। उपन्यास में कथा का ताना-बाना इस तरह बुना गया है कि कहीं पर भी प्रवाह भंग नहीं होता। घटनाएं तेजी से घटित होने के कारण रोचकता बनी रहती है। पात्रों की सृष्टि उनके परिवेश के अनुरूप की गई है। भाषा सरल, सुबोध और शैली वर्णनात्मक और मनोविश्लेषणात्मक है। उपन्यास आधुनिक समाज को सच का आईना दिखाने में समर्थ है।
काला चांद, उपन्यासकार : डॉ. सुधाकर आशावादी, प्रकाशक : अनुरोध प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य : 150 रुपये।
आधुनिक समाज में युवक-युवतियों की मानसिकता में व्यापक परिवर्तन आ रहा है। नई और पुरानी मान्यताओं, परंपराओं, विचारधाराओं के बीच टकराव चल रहा है। पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता भारतीय समाज को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। इसी के चलते समाज में कई तरह के बदलाव आ रहे हैं। कोई पुरानी मान्यताओं पर टिका है तो कोई नवीनता को स्वीकार कर रहा है। काला चांद उपन्यास में डॉ. सुधाकर आशावादी ने स्त्री-पुरुष संबंधों को आधार बनाकर इसी वैचारिक परिवर्तन की पड़ताल करते हुए समाज को आईना दिखाया है। उपन्यास के केंद्र में दो नायिकाएं हैं-स्नेहा और सलोनी। दोनों का ही विवाह तय हो जाता है। स्नेहा का विवाह मयंक और सलोनी का प्रशांत से तय होता है। स्नेहा विवाह से पूर्व मयंक को देह समर्पित कर देती जबकि सलोनी ऐसा करने से इनकार कर देती है। इस संबंध के चलते स्नेहा गर्भवती हो जाती है और उसे गर्भपात कराना पड़ता है। बाद में दोनों के मंगेतर विवाह करने से इनकार कर देते हैं। इस पर शर्मिंदगी के कारण स्नेहा का जीवन से मोहभंग हो जाता है जबकि सलोनी अपनी चारित्रिक दृढ़ता से उत्पन्न आत्मविश्वास के कारण जीवन संघर्ष में अग्रसर रहती है। स्नेहा का मंगेतर जब सलोनी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है तो वह उसे सच्चाई का आईना दिखाकर उसे उसके चारित्रिक पतन का अहसास करा देती है। उपन्यास में कथा का ताना-बाना इस तरह बुना गया है कि कहीं पर भी प्रवाह भंग नहीं होता। घटनाएं तेजी से घटित होने के कारण रोचकता बनी रहती है। पात्रों की सृष्टि उनके परिवेश के अनुरूप की गई है। भाषा सरल, सुबोध और शैली वर्णनात्मक और मनोविश्लेषणात्मक है। उपन्यास आधुनिक समाज को सच का आईना दिखाने में समर्थ है।
काला चांद, उपन्यासकार : डॉ. सुधाकर आशावादी, प्रकाशक : अनुरोध प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य : 150 रुपये।
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Friday, January 15, 2010
हिंदी काव्य साहित्य में शकुन-अपशकुन का अनुशीलन
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
भारतीय समाज में प्रारंभिक काल से शकुन अपशकुन की बड़ी मान्यता रही है। व्यापक समाज शकुनापशकुन का विचार करके ही अपने कार्यों का निष्पादन करता है। डॉ. परमात्मा शरण वत्स ने अपनी पुुस्तक शकुन-अपशकुन में हिंदी साहित्य की विविध कृतियों में इस विषय के प्रसंगों की विवेचना करते हुए शोधपरक दृष्टिकोण से इसकी महत्ता को रेखांकित किया है। उनकी मान्यता है कि दैवी शक्तियां विशिष्ट पशु-पक्षियों की गतिविधियों से भावी शुभ-अशुभ की सूचना प्रदान करती हैं। अंग स्फुरण, स्वप्न और नक्षत्रों आदि की गति के माध्यम से देवी शक्तियों की शुभ-अशुभ इच्छा का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। सात अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में शकुनापशकुनों की व्याख्या, उत्पत्ति, विकास, महत्व तथा वर्गीकरण करके हिंदी काव्य में इनकी स्थापनाओं की विवेचना की गई है। काव्य साहित्य में पशु-पक्षी, कीटों, समाजिक जीवन, शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं तथा स्वप्नादि से प्राप्त शकुनापशकुन का शोधपरक अनुशीलन किया गया है। कथानक, भाव योजना, रस योजना और परिस्थिति चित्रण की दृष्टि से भी इनका महत्व निरूपित किया गया है। उपसंहार में विभिन्न कालों में काव्य में शकुन-अपशकुन का तुलनात्मक अध्ययन और नई कविता में इनके प्रयोग की स्थिति और संभावनाओं पर भी विचार किया गया है। इस कृति की महत्ता इस तथ्य में निहित है कि विषय का तर्कसंगत प्रतिपादन व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण से किया गया है। हिंदी काव्य साहित्य केआदिकाल से लेकर आधुनिक युग तक की रचनाओं में शकुन विचार का विश्लेषण किया गया है। निसंदेह हिंदी काव्य साहित्य के अनुशीलन में डॉ. परमात्मा शरण वत्स की इस कृति की विशिष्ट महत्ता है।
शकुन-अपशकुन, लेखक : डॉ. परमात्मा शरण वत्स, प्रकाशक : अर्चना पब्लिकेशन्स, मेरठ, मूल्य : 500 रुपये।
भारतीय समाज में प्रारंभिक काल से शकुन अपशकुन की बड़ी मान्यता रही है। व्यापक समाज शकुनापशकुन का विचार करके ही अपने कार्यों का निष्पादन करता है। डॉ. परमात्मा शरण वत्स ने अपनी पुुस्तक शकुन-अपशकुन में हिंदी साहित्य की विविध कृतियों में इस विषय के प्रसंगों की विवेचना करते हुए शोधपरक दृष्टिकोण से इसकी महत्ता को रेखांकित किया है। उनकी मान्यता है कि दैवी शक्तियां विशिष्ट पशु-पक्षियों की गतिविधियों से भावी शुभ-अशुभ की सूचना प्रदान करती हैं। अंग स्फुरण, स्वप्न और नक्षत्रों आदि की गति के माध्यम से देवी शक्तियों की शुभ-अशुभ इच्छा का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। सात अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में शकुनापशकुनों की व्याख्या, उत्पत्ति, विकास, महत्व तथा वर्गीकरण करके हिंदी काव्य में इनकी स्थापनाओं की विवेचना की गई है। काव्य साहित्य में पशु-पक्षी, कीटों, समाजिक जीवन, शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं तथा स्वप्नादि से प्राप्त शकुनापशकुन का शोधपरक अनुशीलन किया गया है। कथानक, भाव योजना, रस योजना और परिस्थिति चित्रण की दृष्टि से भी इनका महत्व निरूपित किया गया है। उपसंहार में विभिन्न कालों में काव्य में शकुन-अपशकुन का तुलनात्मक अध्ययन और नई कविता में इनके प्रयोग की स्थिति और संभावनाओं पर भी विचार किया गया है। इस कृति की महत्ता इस तथ्य में निहित है कि विषय का तर्कसंगत प्रतिपादन व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण से किया गया है। हिंदी काव्य साहित्य केआदिकाल से लेकर आधुनिक युग तक की रचनाओं में शकुन विचार का विश्लेषण किया गया है। निसंदेह हिंदी काव्य साहित्य के अनुशीलन में डॉ. परमात्मा शरण वत्स की इस कृति की विशिष्ट महत्ता है।
शकुन-अपशकुन, लेखक : डॉ. परमात्मा शरण वत्स, प्रकाशक : अर्चना पब्लिकेशन्स, मेरठ, मूल्य : 500 रुपये।
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Saturday, January 9, 2010
आधी दुनिया पर वैचारिक चिंतन
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
स्त्री विमर्श पर विविध आयामों और दृष्टिकोणों से चिंतन की कड़ी में सुधा सिंह ने भी आधी दुनिया के दुख, सुख, समस्याओं और त्रासद स्थितियों को सार्थक और प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त किया है। नारी चिंतन को उन्होंने व्यक्तिगत, राष्ट्रीय और सामाजिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करके विचारों को बहुआयामी बनाया है। उनके विचार सामान्य महिला के लिए भी उतने ही सार्थक हैं जितने किसी उच्च वर्ग की साधन संपन्न महिला के लिए। नारी अंतर्मन की पीड़ा को पुरातन और आधुनिक संदर्भों से जोड़कर उन्होंने व्यापक रूप में रेखांकित किया है। नारी शिक्षा का महत्व, भ्रूण हत्या : एक अपराध, स्वावलंबी कैसे बनें, स्वास्थ्य की देखभाल, रिश्तों का महत्व समझें, बच्चों का पालन-पोषण और विकास, समय प्रबंधन कैसे करें, बढ़ती उम्र और देखभाल तथा अस्मिता पर प्रहार शीर्षक से नौ अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में उन्होंने नारी जीवन के गौरव, अस्मिता, विडंबना, त्रासदी, त्याग और आधुनिक समाज में बदलती भूमिका को रेखांकित किया है। विषय को छोटे-छोटे उपशीर्षकों में विभक्त करके उसे अधिक संप्रेषणीय, सरल और प्रवाहमय बना दिया है। सरल, सुबोध भाषा में गंभीर विषयों को अभिव्यक्त करके सुधा सिंह ने पुस्तक की पठनीयता को विस्तार दे दिया है। नारी की स्थिति को लेकर उपजी उनकी चिंता जहां कई समसामायिक प्रश्नों को उठाती है, वहीं उनके समाधान के लिए भी वैचारिक विश्लेषण करती है। यही बात पुस्तक को उपयोगी बना देती है।
नारी समस्या और समाधान, लेखिका : डॉ. सुधा सिंह , प्रकाशक : हरबंस लाल एंड संस, नई दिल्ली, मूल्य : 200 रुपये।
(अमर उजाला, मेरठ 0 8 जनवरी 2010 केअंक में प्रकाशित)
स्त्री विमर्श पर विविध आयामों और दृष्टिकोणों से चिंतन की कड़ी में सुधा सिंह ने भी आधी दुनिया के दुख, सुख, समस्याओं और त्रासद स्थितियों को सार्थक और प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त किया है। नारी चिंतन को उन्होंने व्यक्तिगत, राष्ट्रीय और सामाजिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करके विचारों को बहुआयामी बनाया है। उनके विचार सामान्य महिला के लिए भी उतने ही सार्थक हैं जितने किसी उच्च वर्ग की साधन संपन्न महिला के लिए। नारी अंतर्मन की पीड़ा को पुरातन और आधुनिक संदर्भों से जोड़कर उन्होंने व्यापक रूप में रेखांकित किया है। नारी शिक्षा का महत्व, भ्रूण हत्या : एक अपराध, स्वावलंबी कैसे बनें, स्वास्थ्य की देखभाल, रिश्तों का महत्व समझें, बच्चों का पालन-पोषण और विकास, समय प्रबंधन कैसे करें, बढ़ती उम्र और देखभाल तथा अस्मिता पर प्रहार शीर्षक से नौ अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में उन्होंने नारी जीवन के गौरव, अस्मिता, विडंबना, त्रासदी, त्याग और आधुनिक समाज में बदलती भूमिका को रेखांकित किया है। विषय को छोटे-छोटे उपशीर्षकों में विभक्त करके उसे अधिक संप्रेषणीय, सरल और प्रवाहमय बना दिया है। सरल, सुबोध भाषा में गंभीर विषयों को अभिव्यक्त करके सुधा सिंह ने पुस्तक की पठनीयता को विस्तार दे दिया है। नारी की स्थिति को लेकर उपजी उनकी चिंता जहां कई समसामायिक प्रश्नों को उठाती है, वहीं उनके समाधान के लिए भी वैचारिक विश्लेषण करती है। यही बात पुस्तक को उपयोगी बना देती है।
नारी समस्या और समाधान, लेखिका : डॉ. सुधा सिंह , प्रकाशक : हरबंस लाल एंड संस, नई दिल्ली, मूल्य : 200 रुपये।
(अमर उजाला, मेरठ 0 8 जनवरी 2010 केअंक में प्रकाशित)
Saturday, January 2, 2010
जीवन की त्रासदी से रू-ब-रू कराती गजलें
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
मौजूदा दौर की सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों, आम आदमी की संवेदना, दलित जीवन की त्रासदी, मानवीयता के क्षरण से उपजी स्थितियों को डॉ. राम गोपाल भारतीय ने अपने गजल संग्रह 'हाशिए के लोगÓ में बड़े प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। समाज के शोषित वर्ग की आवाज को गजलों में शब्दबद्ध करते हुए उन्होंने विराट संवेदना और मानवीय पीड़ा से साक्षात्कार कराया है। अनुभूति, अभिव्यक्ति और शिल्प के स्तर पर उनकी गजलें अपनी अलग पहचान बनाने में समर्थ हैं। शिल्प, प्रयोगधर्मिता, मुहावरों, प्रतीकों और बिम्बों के सार्थक प्रयोग से उनकी गजलों को प्रभावोत्पादकता बढ़ जाती है। बड़ी सहजता से वह गंभीर कथ्य को भी शब्दबद्ध कर देते हैं और कुछ सवाल खड़े करके ङ्क्षचतन के लिए भी प्रेरित करते हैं। यथा-'हजार साल से बैठे हैं दूर सूरज से, हमें भी धूप का हक है हुजूर सूरज से। ये कैसी रात है जिसकी सुबह नहीं होती, जवाब चाहिए हमको जरूर सूरज से।Ó राजनीतिक कुटिलता, भ्रष्टाचार और अनीति से त्रस्त होकर उनकी पीड़ा कुछ इस तरह मुखर हुई है- 'इस तरह से जश्ने आजादी मनाया जाएगा, मंच पर गूगों से अब भाषण कराया जाएगा।Ó समाज के शोषित वर्ग को कदम-कदम पर अपमान, तिरस्कार और कष्ट सहन करने होते हैं। इसके बावजूद वह आवाज उठाने में समर्थ नहीं हैं। उनकी इस स्थिति को ये पंक्तियां अभिव्यक्त करती हैं- 'ये बिचारे क्या कहेंगे, हाशिए के लोग हैं. चुप रहे हैं, चुप रहेंगे, हाशिए के लोग हैं।Ó सामाजिक मान्यताएं भौतिकवादी परिवेश में लगातार बदल रही हैं और उनके दुष्परिणामों पर कोई विचार नहीं कर रहा है। इसी से समाज में विसंगतियां भी बढ़ रही हैं। इसीलिए वह लिखते हैं-'कांटे अब गमलों में पाले जाएंगे, खुशबू वाले फूल निकाले जाएंगे।Ó वस्तुत: रामगोपाल भारतीय आधुनिक समाज में पनप रही विविध विडंबनाओं और आम आदमी की त्रासद स्थितियों और पीड़ादायक मनोदशाओं को शिल्प की दृष्टि से पुख्ता गजलों के माध्यम से उभारने में सफल रहे हैं।
हाशिए केलोग, डॉ. राम गोपाल भारतीय, प्रकाशक : कादम्बरी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : १५० रुपये।
(अमर उजाला, मेरठ के०१ जनवरी २०१० केअंक में प्रकाशित)
मौजूदा दौर की सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों, आम आदमी की संवेदना, दलित जीवन की त्रासदी, मानवीयता के क्षरण से उपजी स्थितियों को डॉ. राम गोपाल भारतीय ने अपने गजल संग्रह 'हाशिए के लोगÓ में बड़े प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। समाज के शोषित वर्ग की आवाज को गजलों में शब्दबद्ध करते हुए उन्होंने विराट संवेदना और मानवीय पीड़ा से साक्षात्कार कराया है। अनुभूति, अभिव्यक्ति और शिल्प के स्तर पर उनकी गजलें अपनी अलग पहचान बनाने में समर्थ हैं। शिल्प, प्रयोगधर्मिता, मुहावरों, प्रतीकों और बिम्बों के सार्थक प्रयोग से उनकी गजलों को प्रभावोत्पादकता बढ़ जाती है। बड़ी सहजता से वह गंभीर कथ्य को भी शब्दबद्ध कर देते हैं और कुछ सवाल खड़े करके ङ्क्षचतन के लिए भी प्रेरित करते हैं। यथा-'हजार साल से बैठे हैं दूर सूरज से, हमें भी धूप का हक है हुजूर सूरज से। ये कैसी रात है जिसकी सुबह नहीं होती, जवाब चाहिए हमको जरूर सूरज से।Ó राजनीतिक कुटिलता, भ्रष्टाचार और अनीति से त्रस्त होकर उनकी पीड़ा कुछ इस तरह मुखर हुई है- 'इस तरह से जश्ने आजादी मनाया जाएगा, मंच पर गूगों से अब भाषण कराया जाएगा।Ó समाज के शोषित वर्ग को कदम-कदम पर अपमान, तिरस्कार और कष्ट सहन करने होते हैं। इसके बावजूद वह आवाज उठाने में समर्थ नहीं हैं। उनकी इस स्थिति को ये पंक्तियां अभिव्यक्त करती हैं- 'ये बिचारे क्या कहेंगे, हाशिए के लोग हैं. चुप रहे हैं, चुप रहेंगे, हाशिए के लोग हैं।Ó सामाजिक मान्यताएं भौतिकवादी परिवेश में लगातार बदल रही हैं और उनके दुष्परिणामों पर कोई विचार नहीं कर रहा है। इसी से समाज में विसंगतियां भी बढ़ रही हैं। इसीलिए वह लिखते हैं-'कांटे अब गमलों में पाले जाएंगे, खुशबू वाले फूल निकाले जाएंगे।Ó वस्तुत: रामगोपाल भारतीय आधुनिक समाज में पनप रही विविध विडंबनाओं और आम आदमी की त्रासद स्थितियों और पीड़ादायक मनोदशाओं को शिल्प की दृष्टि से पुख्ता गजलों के माध्यम से उभारने में सफल रहे हैं।
हाशिए केलोग, डॉ. राम गोपाल भारतीय, प्रकाशक : कादम्बरी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : १५० रुपये।
(अमर उजाला, मेरठ के०१ जनवरी २०१० केअंक में प्रकाशित)
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