-डॉ. अशोक प्रियरंजन
डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल का यह दूसरा गजल संग्रह हथेली पर सूरज मौजूदा दौर के आम आदमी के अंतर्मन की व्यथा, सामाजिक विसंगतियों, जिंदगी की तल्ख हकीकत, राजनीतिक विद्रूपताओं और नित बदल रहे जीवनमूल्यों से रू-ब-रू कराता है। हुस्न और मुहब्बत जैसे कोमल भावों को भी अभिव्यक्त करने का उनका अंदाज अलग है-'छुप के बादली में मुझे चांद चिढ़ाता क्या है, मैं अपने चांद को चिलमन में छोड़ आया हूं।Ó रिश्तों में आए बदलाव हों या आदमी की सोच में या फिर सामाजिक मान्यताओं में, वह बड़ी संजीदगी के साथ सभी को रेखांकित करते हैं और कुछ कड़वी हकीकत से भी रु-ब-रू कराते हैं। यथा-'तहजीब तो पश्चिम की हवाओं में बह गई, रिश्ते बदल रहे हैं जमाने के साथ-साथ। राजनेताओं के चरित्र और राजनीति में उपज रही विसंगतियों को भी वह प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त करते हैं-'इन अंधेरों की सियासत से कहां डरते हैं, हम तो सूरज को हथेली पे लिए फिरते हैं। जो जमाने की मुहब्बत में हुए हैं कुरबान, ऐसे इन्सान जमाने में कहां मरते हैं। प्रभावशाली कथ्य, बेहतरीन शिल्प और गहन भाषिक संवेदना के चलते इस संग्रह का हर शेर पाठक के दिल पर अपनी छाप छोडऩे में कामयाब है। यह गजल संग्रह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भाषा की गंगा जमुनी संस्कृति को पुष्ट करता है। इसमें गजलों को आमने-सामने केपृष्ठों पर हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रस्तुत किया गया है। इसलिए दोनों भाषाओं के पाठकों के लिए यह उपयोगी है।
हथेली पर सूरज, शायर : डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल प्रकाशक : निरुपमा प्रकाशन, मेरठ, मूल्य : १५० रुपये।
Monday, February 8, 2010
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