-डॉ. अशोक प्रियरंजन
आधुनिक समाज में युवक-युवतियों की मानसिकता में व्यापक परिवर्तन आ रहा है। नई और पुरानी मान्यताओं, परंपराओं, विचारधाराओं के बीच टकराव चल रहा है। पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता भारतीय समाज को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। इसी के चलते समाज में कई तरह के बदलाव आ रहे हैं। कोई पुरानी मान्यताओं पर टिका है तो कोई नवीनता को स्वीकार कर रहा है। काला चांद उपन्यास में डॉ. सुधाकर आशावादी ने स्त्री-पुरुष संबंधों को आधार बनाकर इसी वैचारिक परिवर्तन की पड़ताल करते हुए समाज को आईना दिखाया है। उपन्यास के केंद्र में दो नायिकाएं हैं-स्नेहा और सलोनी। दोनों का ही विवाह तय हो जाता है। स्नेहा का विवाह मयंक और सलोनी का प्रशांत से तय होता है। स्नेहा विवाह से पूर्व मयंक को देह समर्पित कर देती जबकि सलोनी ऐसा करने से इनकार कर देती है। इस संबंध के चलते स्नेहा गर्भवती हो जाती है और उसे गर्भपात कराना पड़ता है। बाद में दोनों के मंगेतर विवाह करने से इनकार कर देते हैं। इस पर शर्मिंदगी के कारण स्नेहा का जीवन से मोहभंग हो जाता है जबकि सलोनी अपनी चारित्रिक दृढ़ता से उत्पन्न आत्मविश्वास के कारण जीवन संघर्ष में अग्रसर रहती है। स्नेहा का मंगेतर जब सलोनी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है तो वह उसे सच्चाई का आईना दिखाकर उसे उसके चारित्रिक पतन का अहसास करा देती है। उपन्यास में कथा का ताना-बाना इस तरह बुना गया है कि कहीं पर भी प्रवाह भंग नहीं होता। घटनाएं तेजी से घटित होने के कारण रोचकता बनी रहती है। पात्रों की सृष्टि उनके परिवेश के अनुरूप की गई है। भाषा सरल, सुबोध और शैली वर्णनात्मक और मनोविश्लेषणात्मक है। उपन्यास आधुनिक समाज को सच का आईना दिखाने में समर्थ है।
काला चांद, उपन्यासकार : डॉ. सुधाकर आशावादी, प्रकाशक : अनुरोध प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य : 150 रुपये।
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