Saturday, January 2, 2010

जीवन की त्रासदी से रू-ब-रू कराती गजलें

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
मौजूदा दौर की सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों, आम आदमी की संवेदना, दलित जीवन की त्रासदी, मानवीयता के क्षरण से उपजी स्थितियों को डॉ. राम गोपाल भारतीय ने अपने गजल संग्रह 'हाशिए के लोगÓ में बड़े प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। समाज के शोषित वर्ग की आवाज को गजलों में शब्दबद्ध करते हुए उन्होंने विराट संवेदना और मानवीय पीड़ा से साक्षात्कार कराया है। अनुभूति, अभिव्यक्ति और शिल्प के स्तर पर उनकी गजलें अपनी अलग पहचान बनाने में समर्थ हैं। शिल्प, प्रयोगधर्मिता, मुहावरों, प्रतीकों और बिम्बों के सार्थक प्रयोग से उनकी गजलों को प्रभावोत्पादकता बढ़ जाती है। बड़ी सहजता से वह गंभीर कथ्य को भी शब्दबद्ध कर देते हैं और कुछ सवाल खड़े करके ङ्क्षचतन के लिए भी प्रेरित करते हैं। यथा-'हजार साल से बैठे हैं दूर सूरज से, हमें भी धूप का हक है हुजूर सूरज से। ये कैसी रात है जिसकी सुबह नहीं होती, जवाब चाहिए हमको जरूर सूरज से।Ó राजनीतिक कुटिलता, भ्रष्टाचार और अनीति से त्रस्त होकर उनकी पीड़ा कुछ इस तरह मुखर हुई है- 'इस तरह से जश्ने आजादी मनाया जाएगा, मंच पर गूगों से अब भाषण कराया जाएगा।Ó समाज के शोषित वर्ग को कदम-कदम पर अपमान, तिरस्कार और कष्ट सहन करने होते हैं। इसके बावजूद वह आवाज उठाने में समर्थ नहीं हैं। उनकी इस स्थिति को ये पंक्तियां अभिव्यक्त करती हैं- 'ये बिचारे क्या कहेंगे, हाशिए के लोग हैं. चुप रहे हैं, चुप रहेंगे, हाशिए के लोग हैं।Ó सामाजिक मान्यताएं भौतिकवादी परिवेश में लगातार बदल रही हैं और उनके दुष्परिणामों पर कोई विचार नहीं कर रहा है। इसी से समाज में विसंगतियां भी बढ़ रही हैं। इसीलिए वह लिखते हैं-'कांटे अब गमलों में पाले जाएंगे, खुशबू वाले फूल निकाले जाएंगे।Ó वस्तुत: रामगोपाल भारतीय आधुनिक समाज में पनप रही विविध विडंबनाओं और आम आदमी की त्रासद स्थितियों और पीड़ादायक मनोदशाओं को शिल्प की दृष्टि से पुख्ता गजलों के माध्यम से उभारने में सफल रहे हैं।
हाशिए केलोग, डॉ. राम गोपाल भारतीय, प्रकाशक : कादम्बरी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : १५० रुपये।
(अमर उजाला, मेरठ के०१ जनवरी २०१० केअंक में प्रकाशित)

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